संदेश

नमस्कार! ( Greetings! )

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         नमस्ते या नमस्कार करने की मुद्रा। नमस्ते या नमस्कार , भारतीयों के बीच अभिनन्दन करने का प्रयुक्त शब्द है जिसका अर्थ है तुम्हारे लिए प्रणाम।  Namaste or Namaskar Gesture. Namaste or Namaskar is common among Indians to greet (to welcome as well as to bid farewell) each other (verbally with the gesture or only verbally) and it means I salute the divine in you.  

अनेक शब्दों के लिए एक शब्द

अनेक शब्दों के लिए एक शब्द 1 जिसे देखकर डर (भय) लगे डरावना, भयानक 2 जो स्थिर रहे स्थावर 3 ज्ञान देने वाली ज्ञानदा 4 भूत-वर्तमान-भविष्य को देखने (जानने) वाले त्रिकालदर्शी 5 जानने की इच्छा रखने वाला जिज्ञासु 6 जिसे क्षमा न किया जा सके अक्षम्य 7 पंद्रह दिन में एक बार होने वाला पाक्षिक 8 अच्छे चरित्र वाला सच्चरित्र 9 आज्ञा का पालन करने वाला आज्ञाकारी 10 रोगी की चिकित्सा करने वाला चिकित्सक 11 सत्य बोलने वाला सत्यवादी 12 दूसरों पर उपकार करने वाला उपकारी 13 जिसे कभी बुढ़ापा न आये अजर 14 दया करने वाला दयालु 15 जिसका आकार न हो निराकार 16 जो आँखों के सामने हो प्रत्यक्ष

पर्यायवाची शब्द

  पर्यायवाची शब्द किसी शब्द-विशेष के लिए प्रयुक्त समानार्थक शब्दों को पर्यायवाची शब्द कहते हैं। यद्यपि पर्यायवाची शब्द समानार्थी होते हैं किन्तु भाव में एक-दूसरे से किंचित भिन्न होते हैं। 1.अमृत- सुधा, सोम, पीयूष, अमिय। 2.असुर- राक्षस, दैत्य, दानव, निशाचर। 3.अग्नि- आग, अनल, पावक, वह्नि। 4.अश्व- घोड़ा, हय, तुरंग, बाजी। 5.आकाश- गगन, नभ, आसमान, व्योम, अंबर। 6.आँख- नेत्र, दृग, नयन, लोचन। 7.इच्छा- आकांक्षा, चाह, अभिलाषा, कामना। 8.इंद्र- सुरेश, देवेंद्र, देवराज, पुरंदर। 9.ईश्वर- प्रभु, परमेश्वर, भगवान, परमात्मा। 10.कमल- जलज, पंकज, सरोज, राजीव, अरविन्द। 11.गरमी- ग्रीष्म, ताप, निदाघ, ऊष्मा। 12.गृह- घर, निकेतन, भवन, आलय। 13.गंगा- सुरसरि, त्रिपथगा, देवनदी, जाह्नवी, भागीरथी। 14.चंद्र- चाँद, चंद्रमा, विधु, शशि, राकेश। 15.जल- वारि, पानी, नीर, सलिल, तोय। 16.नदी- सरिता, तटिनी, तरंगिणी, निर्झरिणी। 17.पवन- वायु, समीर, हवा, अनिल। 18.पत्नी- भार्या, दारा, अर्धागिनी, वामा। 19.पुत्र- बेटा, सुत, तनय, आत्मज। 20.पुत्री-बेटी, सुता, तनया, आत्मजा। 21.पृथ्वी- धरा, मही, धरती, वसुधा, भूमि, वसुं

मुहावरे और लोकोक्तियाँ

मुहावरे और लोकोक्तियाँ मुहावरा- कोई भी ऐसा वाक्यांश जो अपने साधारण अर्थ को छोड़कर किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करे उसे मुहावरा कहते हैं। लोकोक्ति- लोकोक्तियाँ लोक-अनुभव से बनती हैं। किसी समाज ने जो कुछ अपने लंबे अनुभव से सीखा है उसे एक वाक्य में बाँध दिया है। ऐसे वाक्यों को ही लोकोक्ति कहते हैं। इसे कहावत, जनश्रुति आदि भी कहते हैं। मुहावरा और लोकोक्ति में अंतर- मुहावरा वाक्यांश है और इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता। लोकोक्ति संपूर्ण वाक्य है और इसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है। जैसे-‘होश उड़ जाना’ मुहावरा है। ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी’ लोकोक्ति है। कुछ प्रचलित मुहावरे 1. अंग संबंधी मुहावरे 1. अंग छूना - (कसम खाना) मैं अंग छूकर कहता हूँ साहब, मैने पाजेब नहीं देखी। 2. अंग-अंग मुसकाना-(बहुत प्रसन्न होना)- आज उसका अंग-अंग मुसकरा रहा था। 3. अंग-अंग टूटना-(सारे बदन में दर्द होना)-इस ज्वर ने तो मेरा अंग-अंग तोड़कर रख दिया। 4. अंग-अंग ढीला होना-(बहुत थक जाना)- तुम्हारे साथ कल चलूँगा। आज तो मेरा अंग-अंग ढीला हो रहा है। 2. अक्ल-संबंधी मुहावरे 1. अक्ल का दुश्मन-(मू

तुलसीदास

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तुलसीदास के जीवन की ऐतिहासिक घटनाएं तुलसीदास के जीवन की कुछ घटनाएं एवं तिथियां भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। कवि के जीवन-वृत्त और महिमामय व्यक्तित्व पर उनसे प्रकाश पड़ता है। यज्ञोपवीत मूल गोसाईं चरित के अनुसार तुलसीदास का यज्ञोपवीत माघ शुक्ला पंचमी सं० १५६१ में हुआ - पन्द्रह सै इकसठ माघसुदी। तिथि पंचमि औ भृगुवार उदी । सरजू तट विप्रन जग्य किए। द्विज बालक कहं उपबीत किए ।। कवि के माता - पिता की मृत्यु कवि के बाल्यकाल में ही हो गई थी। विवाह जनश्रुतियों एवं रामायणियों के विश्वास के अनुसार तुलसीदास विरक्त होने के पूर्व भी कथा-वाचन करते थे। युवक कथावाचक की विलक्षण प्रतिभा और दिव्य भगवद्भक्ति से प्रभावित होकर रत्नावली के पिता पं० दीन बंधु पाठक ने एक दिन, कथा के अन्त में, श्रोताओं के विदा हो जाने पर, अपनी बारह वर्षीया कन्या उसके चरणों में सौंप दी। मूल गोसाईं चरित के अनुसार रत्नावली के साथ युवक तुलसी का यह वैवाहिक सूत्र सं० १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी, दिन गुरुवार को जुड़ा था - पंद्रह सै पार तिरासी विषै । सुभ जेठ सुदी गुरु तेरसि पै । अधिराति लगै जु फिरै भंवरी । दुलहा दुलही की परी पं

कबीर

महात्मा कबीर का जन्म-काल महात्मा कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अधंकारमय हो रहा था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाएँ सोचनीय हो गयी थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धमार्ंधता से जनता त्राहि- त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म- बल का ह्रास हो रहा था। जनता के भीतर भक्ति- भावनाओं का सम्यक प्रचार नहीं हो रहा था। सिद्धों के पाखंडपूर्ण वचन, समाज में वासना को प्रश्रय दे रहे थे। नाथपंथियों के अलखनिरंजन में लोगों का ऋदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी- मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर का प्रार्दुभाव हुआ। जन्म महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। "कबीर कसौटी' में इनका जन्म संवत् १४५५ दिया गया है। ""भक्ति- सुधा- बिंदु-

सूरदास

जन्म सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। "साहित्य लहरी' सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है - मुनि पुनि के रस लेख । दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।। इसका अर्थ विद्वानों ने संवत् १६०७ वि० माना है, अतएव "साहित्य लहरी' का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री बल्लभाचार्य थे - सूरदास का जन्म सं० १५३५ वि० के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ वि० के मध्य स्वीकार किया जाता है। रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० वि० के आसपास माना जाता है। श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो। सूरदास की आयु "सूरसारा

वाच्य

वाच्य वाच्य-क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि वाक्य में क्रिया द्वारा संपादित विधान का विषय कर्ता है, कर्म है, अथवा भाव है, उसे वाच्य कहते हैं। वाच्य के तीन प्रकार हैं- 1. कर्तृवाच्य। 2. कर्मवाच्य। 3. भाववाच्य। 1.कर्तृवाच्य- क्रिया के जिस रूप से वाक्य के उद्देश्य (क्रिया के कर्ता) का बोध हो, वह कर्तृवाच्य कहलाता है। इसमें लिंग एवं वचन प्रायः कर्ता के अनुसार होते हैं। जैसे- 1.बच्चा खेलता है। 2.घोड़ा भागता है। इन वाक्यों में ‘बच्चा’, ‘घोड़ा’ कर्ता हैं तथा वाक्यों में कर्ता की ही प्रधानता है। अतः ‘खेलता है’, ‘भागता है’ ये कर्तृवाच्य हैं। 2.कर्मवाच्य- क्रिया के जिस रूप से वाक्य का उद्देश्य ‘कर्म’ प्रधान हो उसे कर्मवाच्य कहते हैं। जैसे- 1.भारत-पाक युद्ध में सहस्रों सैनिक मारे गए। 2.छात्रों द्वारा नाटक प्रस्तुत किया जा रहा है। 3.पुस्तक मेरे द्वारा पढ़ी गई। 4.बच्चों के द्वारा निबंध पढ़े गए। इन वाक्यों में क्रियाओं में ‘कर्म’ की प्रधानता दर्शाई गई है। उनकी रूप-रचना भी कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार हुई है। क्रिया के ऐसे रूप ‘कर्मवाच्य’ कहलाते हैं। 3.भाववाच्य-क्रिया के जि

काल

काल क्रिया के जिस रूप से कार्य संपन्न होने का समय (काल) ज्ञात हो वह काल कहलाता है। काल के निम्नलिखित तीन भेद हैं- 1. भूतकाल। 2. वर्तमानकाल। 3. भविष्यकाल। 1. भूतकाल क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय (अतीत) में कार्य संपन्न होने का बोध हो वह भूतकाल कहलाता है। जैसे- (1) बच्चा गया। (2) बच्चा गया है। (3) बच्चा जा चुका था। ये सब भूतकाल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि ‘गया’, ‘गया है’, ‘जा चुका था’, क्रियाएँ भूतकाल का बोध कराती है। भूतकाल के निम्नलिखित छह भेद हैं- 1. सामान्य भूत। 2. आसन्न भूत। 3. अपूर्ण भूत। 4. पूर्ण भूत। 5. संदिग्ध भूत। 6. हेतुहेतुमद भूत। 1.सामान्य भूत- क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय में कार्य के होने का बोध हो किन्तु ठीक समय का ज्ञान न हो, वहाँ सामान्य भूत होता है। जैसे- (1) बच्चा गया। (2) श्याम ने पत्र लिखा। (3) कमल आया। 2.आसन्न भूत- क्रिया के जिस रूप से अभी-अभी निकट भूतकाल में क्रिया का होना प्रकट हो, वहाँ आसन्न भूत होता है। जैसे- (1) बच्चा आया है। (2) श्यान ने पत्र लिखा है। (3) कमल गया है। 3.अपूर्ण भूत- क्रिया के जिस रूप से कार्य का होना बीते समय में

क्रिया

क्रिया क्रिया- जिस शब्द अथवा शब्द-समूह के द्वारा किसी कार्य के होने अथवा करने का बोध हो उसे क्रिया कहते हैं। जैसे- (1) गीता नाच रही है। (2) बच्चा दूध पी रहा है। (3) राकेश कॉलेज जा रहा है। (4) गौरव बुद्धिमान है। (5) शिवाजी बहुत वीर थे। इनमें ‘नाच रही है’, ‘पी रहा है’, ‘जा रहा है’ शब्द कार्य-व्यापार का बोध करा रहे हैं। जबकि ‘है’, ‘थे’ शब्द होने का। इन सभी से किसी कार्य के करने अथवा होने का बोध हो रहा है। अतः ये क्रियाएँ हैं। धातु क्रिया का मूल रूप धातु कहलाता है। जैसे-लिख, पढ़, जा, खा, गा, रो, पा आदि। इन्हीं धातुओं से लिखता, पढ़ता, आदि क्रियाएँ बनती हैं। क्रिया के भेद- क्रिया के दो भेद हैं- (1) अकर्मक क्रिया। (2) सकर्मक क्रिया। 1. अकर्मक क्रिया जिन क्रियाओं का फल सीधा कर्ता पर ही पड़े वे अकर्मक क्रिया कहलाती हैं। ऐसी अकर्मक क्रियाओं को कर्म की आवश्यकता नहीं होती। अकर्मक क्रियाओं के अन्य उदाहरण हैं- (1) गौरव रोता है। (2) साँप रेंगता है। (3) रेलगाड़ी चलती है। कुछ अकर्मक क्रियाएँ- लजाना, होना, बढ़ना, सोना, खेलना, अकड़ना, डरना, बैठना, हँसना, उगना, जीना, दौड़ना, रोना, ठहरना,